Friday 10 June 2011

बिखरी हुई ज़ुल्फ़ को .........$oni..

बिखरी हुई ज़ुल्फ़ को
करीने से सजाकर मैंने  
महकती सांस मैं 
कुछ और इत्र  घोला है ,
लबों पर छिड़की है
एक ताज़ा  सुर्ख़ लाल हंसी
और पेशानी से बासी
हदों  को खोला है |
लो फिर एक और दिन
पहना है मेरे  चेहरे ने ,
कि एक और  दिन
गुज़रेगा हकीक़त बनकर |
आईने से खुश होने का 
वादा करके मेरे ही अक्श ने
मुझसे ही झूठ बोला है |
अभी निकालेंगे मेरे पाँव
घर से मंजिल को ,
शाम सिमटेगी तो फिर
थक कर वापस  लौटेंगे ,
सफेद चादरों के
बुत बने से बिस्तर पर ,
ज़िस्म एक लाश क़ी सूरत मैं 
बिखर जायेगा  .....
रगों में दफ़्न सन्नाटों से
राज़ खोलेगा 
और तन्हाई में मुंह डाले 
खूब रो लेगा | 
गिर के उठेंगे कई ज्वार
तन के दरिया  में ,
किसी ठहराव के मुहाने से
लग के रो लेंगे |
लुढ़क जाते हैं कई
दिन इसी तरह थक कर ,
कदीम रातों के तकिये का
सहारा लेकर |
बस एक उम्र है जो
मुसलसल सी चला करती है 
साँसों को सीने में दबाये हरदम |
लो फिर एक और दिन
पहना था मेरे चेहरे ने,
कि एक और दिन गुज़ारा 
था हकीक़त बनकर .........



(कदीम =पुराने ,मुसलसल =लगातार)

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