Wednesday 1 June 2011

अब तक पा न सकी प्रीतम को,

जनम जनम से बिछुड़ी ,
अब तक पा न सकी प्रीतम को,
सीमाओं में बाँध न पाई..
अपने चंचल मन को

देख धूल का ढेर बावला,
मचल मचल मन खेला,
भटक गया ,घर लौट न पाया
देख जगत का मेला..

बैठ कहीं एकांत शांत मन
मुदू नयन झरोखे
तभी वहां रंगीन खिलौने
दे जाते हैं धोखे

प्यास कंठ में अकुलाई तो
भटकाया मृग-जल में
सांस सांस यूँ छली गयी
छलनाओं की छल-छल में

मैं तो अब तक पहुँच न पाई
मीत तुम्ही आ जाते...
साथ तुम्हारे असत जगत के
भरम न यूँ भरमाते...

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